पर्यटन केवल उद्योग ही नहीं है,यह इतिहास को भी जीवित रखता हैधरोहर से परिचित कराता हैभारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था, 'इंडिया' बन, इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा है परिणाम यूनान मिस्त्र रोम से भी घातक होगा कुछ लोग इतिहास पड़ते, पढ़ाते हैं कुछ बिगाडते हैंहम वो(भारत माता के लाल)हैं, जो अनुकरणीय इतिहास घडते/ रचते हैतिलक.(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैट करें,संपर्कसूत्र-तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 09999777358

what's App no 9971065525


DD-Live YDMS दूरदर्पण विविध राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर दो दर्जन प्ले-सूची

https://www.youtube.com/channel/UCHK9opMlYUfj0yTI6XovOFg एवं

Old Archie Rendered Image

बिकाऊ मीडिया -व हमारा भविष्य

: : : क्या आप मानते हैं कि अपराध का महिमामंडन करते अश्लील, नकारात्मक 40 पृष्ठ के रद्दी समाचार; जिन्हे शीर्षक देख रद्दी में डाला जाता है। हमारी सोच, पठनीयता, चरित्र, चिंतन सहित भविष्य को नकारात्मकता देते हैं। फिर उसे केवल इसलिए लिया जाये, कि 40 पृष्ठ की रद्दी से क्रय मूल्य निकल आयेगा ? कभी इसका विचार किया है कि यह सब इस देश या हमारा अपना भविष्य रद्दी करता है? इसका एक ही विकल्प -सार्थक, सटीक, सुघड़, सुस्पष्ट व सकारात्मक राष्ट्रवादी मीडिया, YDMS, आइयें, इस के लिये संकल्प लें: शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।: : नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक विकल्प का सार्थक संकल्प - (विविध विषयों के 28 ब्लाग, 5 चेनल व अन्य सूत्र) की एक वैश्विक पहचान है। आप चाहें तो आप भी बन सकते हैं, इसके समर्थक, योगदानकर्ता, प्रचारक,Be a member -Supporter, contributor, promotional Team, युगदर्पण मीडिया समूह संपादक - तिलक.धन्यवाद YDMS. 9911111611: :

Thursday, December 2, 2010

खुदीराम बोस

खुदीराम बोस भारत को कुचल रहे ब्रिटिश पर जो पहला बम था, इस राष्ट्र नायक ने फैंका था,स्कूल में भी वह वन्दे मातरम जैसे पवित्र शब्दों की ओर आकर्षित था ! '(मैं भारत माता के चरणों में शीश नवाता हूँ !) और आजादी के युद्ध में कूद पड़े. 16 वर्ष का लड़का पुलिस अवज्ञा कर 19 वर्ष की आयु में जब वह बलिदान हुआ उसके हाथों में एक पवित्र पुस्तक भागवद गीता (देवी गीत) के साथ उसके होठों पर था वंदे मातरम का नारा.--लेखक ! यह अवसर था, फरवरी 1906 में एक भव्य प्रदर्शनी की बंगाल में मेदिनीपुर में व्यवस्था की गयी थी. उद्देश्य तो भारत के ब्रिटिश शासक के भारत में अन्याय को छिपाने का था. प्रदर्शनी पर कठपुतलिया और चित्र थे, जो धारणा बना सकते है कि विदेशी ब्रिटिश शासक भारत के लोगों की सहायता कर रहे थे! प्रदर्शनी देखने के लिए वहाँ बड़ी भीड़ थी ! तब, विज्ञप्ति शीर्षक 'सोनार बांग्ला' के साथ वंदे 'मातरम् नारा लिए पत्रक के एक बंडल के साथ 16 वर्ष का एक लड़का दिखाई दिया, वह पत्रक उन लोगों को वितरण किया गया. इसके अतिरिक्त यह प्रदर्शनी लगाने में अंग्रेजों का असली उद्देश्य यह भी पत्रक में बताया गया. तथा ब्रिटिश अन्याय और अत्याचार के विभिन्न रूपों का खुलासा भी !प्रदर्शनी के लिए आगंतुकों के अतिरिक्त, वहाँ कुछ एक इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार भी थे. उन लोगों ने अंग्रेजों के अन्याय उजागर करने का विरोध किया ! वंदे मातरम् जैसे शब्द '(स्वतंत्रता) और' स्वराज्य '(आत्म शासन) उन्हें पिन और सुई की तरह चुभते थे. वे पत्रक वितरण से लड़के को रोकने का प्रयास किया. उनकी आँखें गुस्से से लाल, वे लड़के पर गुर्राए glared, उसे डांटा और उसे धमकाते किया बवाल. लेकिन उन्हें अनदेखा कर लड़का शांति से पत्रक वितरण करता चला गया. जब कुछ लोगों ने उस पर कब्जा करने का प्रयास किया, वह चालाकी से भाग निकले. अंतत: एक पुलिसकर्मी के हाथ की पकड़ लड़के पर पद गई वह पत्रक का बंडल भी खींच लिया. लेकिन पकड़ने के लिए लड़का इतना आसान नहीं था. वह अपने हाथ झटकाता मुक्त हुआ. फिर वह हाथ लहराया और पुलिस वाले की नाक पर शक्तिशाली वार किया. फिर वह पत्रक भी अधिकार में ले लिया, और कहा, "ध्यान रखो, कि मेरे शरीर को स्पर्श नहीं! मैं देखता हूँ  आप मुझे कैसे एक वारंट के बिना गिरफ्तार कर सकते हैं!."वो झटका प्राप्त पुलिस वाला फिर आगे बढ़ा, लेकिन लड़का वहाँ नहीं था. वह भीड़ के बीच गायब हो गया था.चाय पान के समय, लोगों के रूप में वंदे 'मातरम् तूफान से पुलिस और राजा के प्रति वफादार भी अपमानित और आश्चर्य से भरे दुखी थे.बाद में एक मामला लड़के के विरुद्ध दर्ज किया गया था, लेकिन अदालत ने उसे लड़के कि कम आयु के आधार पर निर्धारित किया है.जो वीर लड़का इतना बहादुरी से मेदिनीपुर प्रदर्शनी में पत्रक वितरित कर गया और जिससे अंग्रेजों की कुत्सित चालों को हराया खुदीराम बोस था.खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को मेदिनीपुर जिले के गांव बहुवैनी में हुआ था. उनके पिता त्रैलोक्य नाथ बसु नादाज़ोल राजकुमार के शहर के तहसीलदार थे. उसकी माँ लक्ष्मी प्रिया देवी जो अपने धार्मिक जीवन और उदारता के लिए एक पवित्र औरत अधिक जानी जाती थी. हालांकि घर में कुछ बच्चों पैदा हुए थे सब की जन्म के बाद शीघ्र ही मृत्यु हो गई. केवल एक बेटी बच गई. अंतिम बच्चा, खुदीराम बोस, एकमात्र जीवित बेटा था.
बोस परिवार को एक नर बच्चे की चाह थी. लेकिन लंबे समय के लिए उनके आनंद की आयु पर्याप्त नहीं रह सकी. वे अप्रत्याशित रूप से मर गया जब खुदीराम मात्र 6 वर्ष था. उसकी बड़ी बहन अनुरुपा देवी और जीजाजी अमृतलाल ने उसे पालने की जिम्मेदारी कंधे पर ली थी. अनुरुपा देवी ने एक माँ के स्नेह के साथ खुदीराम का पालन कियावह चाहती थी, उसका छोटा भाई अत्यधिक शिक्षित, एक उच्च पद पाने के बाद नाम हो! वह इसलिए उसे पास के एक स्कूल में भर्ती कराया.  ऐसा नहीं था कि खुदीराम नहीं सीख सकता थावह कुशाग्र था और चीजों को आसानी से समझ सकता थालेकिन उसका ध्यान अपनी कक्षा में पाठ के लिए नहीं लगाया जा सका. हालांकि उनके शिक्षकों ने अपनी आवाज के शीर्ष पर चिल्लाया, वह सबक नहीं सुना. सबक से पूरी तरह से असंबंधित विचार उसके सिर में घूमते रहे थे जन्म से एक देशभक्त, खुदीराम बोस ने 7-8 वर्ष की आयु में भी सोचा, ' भारत हमारा देश है. यह एक महान देश है. हमारे बुजुर्गों का कहना है कि यह सहस्त्रों वर्षों से ज्ञान का केंद्र है. तो क्रोधित ब्रिटिश यहाँ क्यों हो ? उनके अधीन, हमारे लोग भी जिस रूप में वे चाहते नहीं रह सकते. बड़ा होकर, मैं किसी तरह उन्हें देश से बाहर खदेड़ दूंगा 'पूरे दिन लड़का इन विचारों में लगा था. इस प्रकार जब वह पढ़ने के लिए एक किताब खोले, उसे एक क्रोधित ब्रिटिश की हरी आंखों का सामना करना पड़ा. यहां तक कि जब वह खा रहा था, वही याद उसका पीछा करती रही और स्मृति उसके दिल में एक अजीब सा दर्द लाई. उसकी बहन और उसके जीजा दोनों ने सोचा लड़का परेशान क्यों है ? उन्होंने सोचा कि उसकी माँ की स्मृति उसे परेशान किया है, और उसे अधिक से अधिक स्नेह दिया. किन्तु खुदीराम भारत माता के बारे में दुखी था. उसकी पीड़ा में दिन पर दिन वृद्धि हुई. 
गुलामी से बदतर रोग न कोय ?एक बार खुदीराम एक मंदिर में गया था. कुछ व्यक्ति मंदिर के सामने बिना आसन जमीन पर लेट रहे थे. "क्यों लोग बिना आसन जमीन पर लेट रहे हैं", खुदीराम ने कुछ व्यक्तियों से पूछा, उनमें से एक ने विस्तार से बताया: "वे किसी न किसी बीमारी से पीड़ित हैं व एक मन्नत मानी है और भोजन और पानी के बिना यहाँ पड़ रहेंगे जब तक भगवान उनके सपने में दिखकर रोग ठीक करने का वादा नहीं देता ..."खुदीराम एक पल के लिए सोचा और कहा, "एक दिन मुझे भी तप करने के लिए भूख और प्यास भुला कर और इन लोगों की तरह जमीन पर बिना आसन लेटना होगा.""आपको क्या रोग है?" एक आदमी ने लड़के से पूछा! खुदीराम हँसे, और कहा, "गुलामी से बदतर रोग न कोय ? हमें इसे बाहर खदेढ़ना होगा ."कितनी  कम उम्र में भी, खुदीराम ने इतनी गहराई से देश की स्वतंत्रता के बारे में सोचा था. लेकिन वह इसे कैसे प्राप्त करे ? यह समस्या हमेशा उस के मन को घेरे रखती थी . वह सफलतापूर्वक कैसे अपने कर्तव्य पूरा कर सकता है? इस प्रकार चिंतित खुदीराम से एक दिन का नाद सुना 'वंदे मातरम', 'भारत माता की जय' (विजय मदर इंडिया के लिए). वह इन शब्दों से रोमांचित था, उसकी आँखें चमकने लगी और वह आनंद का अनुभव किया.
पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !

भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,
'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की
 पतन की राह चलने लगा !
आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Saturday, May 29, 2010

आस्था की डोर – चैरा

हिम का आंचल यानि हिमाचल के कुल्लू-मनाली, शिमला, डलहौजी आदि विख्यात पर्यटन स्थलों को तो आम तौर पर सैलानी जानते ही हैं लेकिन इस हिमाचल में कहीं कुछ ऐसे भी अनछुए स्थल हैं जहां सैलानी अभी तक नहीं पहुंच पाए हैं। ऐसे ही एक स्थल पर मुझे पिछले साल जून में जाने का मौका मिला। इस स्थल का नाम है “चैरा” देव माहूँनाग का मूल स्थान ।इस स्थान की विशेषता यह है कि यहां स्थित माहूँनाग जी के मन्दिर का दरवाजा हर महिने की संक्रांति को ही खुलता है और यही नहीं उसे खोलने के लिये बकरे की बलि भी देनी पड़ती है यह जानकर मन में बहुत उत्सुकता हुई और हमने संक्रांति के समय वहां जाने का प्रोग्राम बनाया 1 यह स्थान हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग उपमंडल में है। तो चलिए चलते हैं चैरा की अविस्मणीय यात्रा पर। जो रहस्य, रोमांच, मस्ती, व साहस से परिपूर्ण है।
                                                                         मंडी
हमारी यात्रा शुरू होती है मंडी शहर से । व्यास नदी के किनारे स्थित ये मंडी शहर कुल्लू मनाली के रास्ते में ही है। मंडी से हमने अपनी यात्रा टाटा सूमों पर शुरू की। क्योंकि जिस स्थान पर हम जा रहे थे वहां छोटी कार ले जाना संभव नहीं था। यात्रा में जोखिम और कठिनाईयां भी होंगी , इसकी जानकारी हमने तभी हासिल कर ली थी जब हम चैरा घूमने का प्रोग्राम बना रहे थे। यह एक पारिवारिक यात्रा थी और हमारे साथ 4 छोटे बच्चे भी थे जिनकी आयु 5 से 13 तक की थी। सफर शुरू हुआ , धीरे धीरे गंतव्य की ओर कदम बढ़ने लगे । करीब 30 कि.मी. के सफर के बाद बहुत ही सुन्दर गांव आया “चैल चौक” यहाँ पर चील के हरे भरे जंगल दिखे तो शिथिल पड़ी आँखों को तरलता का भान हुआ । वहाँ पर चाय पीकर आगे की यात्रा आरम्भ की । धीरे धीरे गाड़ी उस पहाड़ी रास्ते पर चल रही थी और हमारी आँखें खिड़की से बाहर प्राकृतिक सुन्दरता की गलियों में विचरण कर रही थी । गर्मियों के दिन थे सूरज अपने पूरे सरूर पर था परंतु कहीं पर वृक्ष इतने घने थे कि सूरज की किरणें भी उनसे रास्ता मांगती प्रतीत होती थी । आगे एक के बाद एक ठहराव आते गये जिनमें चुराग,पांगणा,चिंडी आदि प्रमुख हैं । चिन्डी का रेस्ट हाऊस एक ऐसा आराम गृह है जो शरीर के साथ साथ रूह को भी सकून देता है क्योंकि यहां चारों ओर देखने पर नैसर्गिक सुन्दरता नज़र आती है । अब धीरे धीरे गंतव्य से दूरी घटने लगी थी और मंजिल को देखने की चाहत बढ़ने लगी थी क्योंकि अभी तक वो अनदेखा स्थान सिर्फ हमारी कल्पनाओं में था और जैसे कल्पना का पंछी झट से उड़ कर गगन को छू लेना चाहता है वैसे ही हमारा मन भी उस स्थान से जुड़े पहलुओं को जानने के लिये बेचैन था । अंत में हम करसोग पहुँच जाते हैं और वहां पर स्थित ममलेश्वर महादेव और कामाक्षा देवी के दर्शन करते हैं । सच मानो तो यात्रा तो अब शुरु होती है । वहां से 2-3 कि.मी. आगे जाने पर ‘करोल’ नाम का गांव आता है और यहां पर गाड़ी छोड़ कर सारा सामान अपने साथ लेकर हम अपनी पगयात्रा शुरू करते हैं चैरा की ओर । धीरे-धीरे कदम बढ़ने लगते है गंतव्य की ओर , रास्ते के नाम पर सिर्फ 3 फ़ुट की पगडंडी थी कहीं पर सीधी कहीं पर घुमावदार । करीब 2 पहाड़ इसी पगडंडी द्वारा तय करने के बाद एक घर नज़र आने लगता है प्यासे होठों को तरलता का आभास होने लगता है क्योंकि गर्मी के मौसम होने के कारण प्यास अधिक लग रही थी । अब तक हमारे पास साथ में लाया हुआ पानी खत्म हो चुका था । उस घर के लोगों ने हम अपरीचित जनों का खुले दिल से स्वागत किया और पीने को पानी दिया । कुछ देर आराम करके फिर से चलना शुरू किया तो कुछ दूरी तय करने के बाद इस यात्रा का अंतिम आश्रय एक छोटी सी दुकान आई जहाँ पर जरूरत की कुछ चीजें ही उपलब्ध थी । हमने भी अपने सामान को टटोल कर जरूरत की सभी चीजों का जायजा लिया क्योंकि इसके बाद सफर में हमें अपने पास रखी हुई चीजों पर ही निर्भर रहना था । वहां से एक नाले के साथ-2 नीचे चलते – चलते हम “अमला विमला” खड्ड में पहुंच गए । अभी मंजिल तक पहुंचने के लिये इसी खड्ड को हमें 14 बार लांघना था । यहां पर दूरभाष से भी सम्पर्क कट जाता है और रह जाते है सिर्फ हम , प्रकृति के मनभावन नजारे और हमारे विचार जो खुले आसमां के नीचे पहाड़ों की ऊंची ऊंची चोटियों पर किसी बादल की तरह उमड़ते घुमड़ते हुए एक अद्भुत अलौकिक आनंद की ओर ले जाते हैं ।
यहां प्रकृति हर कदम पर बिल्कुल नए रंग दिखा रही थी । कहीं पर पहाड़ बहुत हरे भरे थे तो कहीं पर बस पत्थर की बनावट सी प्रतीत होती थी1उन पहाड़ो में कुछ कन्दराएं थी जो उन लोगों के लिये रहने का ठिकाना थी जो अपने पशुओं,भेड़ बकरियों को चराने के लिये कई दिनों घर से बाहर रहते हैं । इसी जगह पर एक तूफानी चक्रवात ने हमें घेर लिया और हम पत्तों की तरह लहराते हुए गिर पड़े तब यही कन्दराएं हमारा सहारा बनी । कुछ दूरी तय करने पर केले का बागीचा नजर आया क्रमबद्ध अनेक केले के पेड़ । हम इस वक्त तक 3 बार खड्ड पार कर चुके थे और पानी की धारा के साथ-2 सफर करते करते ये पहाड़, ये पानी की हलचल, चट्टाने हमारे साथी बन गए थे अब खड्ड को पार करते हुए डर नही अपितु आनन्द की अनुभूति होने लगी थी ।
यात्रा का हर पहलू रोमांच से भरपूर हो तो अपना ही आनन्द है । ऐसे ही पानी की धारा के साथ साथ सफर चलता रहा बीच में एक नज़ारा अनुपम था । वहां के स्थानीय लोगों द्वारा सिंचाई के लिये पानी को एकत्रित किया गया था और बीच में 1-2 फुट की दूरी पर पत्थर रख कर चलने के लिये रास्ता बनाया गया था । छोटे बच्चों के साथ उस स्थान पर थोड़ी कठिनाई महसूस हुई परंतु जाने क्या था कि ये नन्हे बालक इतने कठिन रास्ते पर भी मस्ती के साथ चल रहे थे शायद ये वो दैवीय शक्ति थी जिसके आगोश में हम जा रहे थे । पानी ठहराव लिये हुए दर्पण की भांति नजर आ रहा था , अपने अन्दर काफी कुछ समेटे बाहर से शांत और अन्दर से उतना व्याकुल । दोनों तरफ के गगनचुम्बी पहाड़ के साये , उस ठहरे पानी में प्रतिबिम्ब बनाए , एक दम उन्नत खड़े थे आकाश की ओर और पानी उनकी विशालता को अपने अन्दर समेटे मौन था ।
हम बस आगे बढ़ते जा रहे थे अभी प्रकृति काफी रहस्यों के उदघाटन करने वाली थी । आगे बढ़ने पर पहाड़ का अनोखा रूप मिला बस मिट्टी की रंगत सी दिखती थी नीचे पानी के बहाव से पहाड़ घिस गए थे और बीच में ऐसे प्रतीत होते थे मानों पत्थरों की चिनाई करके एक दीवार सी बनाई गई हो । एक पल में पहाड़ की टूटन का आभास होता था तो अगले पल पत्थरों के जुड़ाव का । पहाड़ ने ये रूप कैसे पाया ये सोच कर हैरानगी होती है । इंसान अपनी कृति पर कितना ही नाज़ करे परंतु प्रकृति का मुकाबला नहीं कर सकता ।
खड्ड आर पार करने का सिलसिला यूं ही चलता रहा और ऐसे ही रास्ता कटता रहा बहुत सारे स्मरणीय पलों के साथ और मंजिल के अंतिम पडाव के नज़दीक पहुँचने पर देखते हैं कि वहां फिर से केले का बगीचा है ऐसा प्रतीत हुआ मानो वहां भगवान विष्णु का साक्षात वास हो परंतु जब खेतों पर नजर डाली तो वो खाली थे शायद सुविधाओं के अभाव के कारण ऐसा था । अब अंत में जिस खड्ड को हम चट्टानों से पार करते आये थे उसे हमने एक छोटे से पुल से पार किया और पहुँच गए ‘देव माहूँनाग’ के मूल स्थान ‘चैरा’ । जिसके लिये 4 घण्टे की पगयात्रा करके आये थे ।मन्दिर का द्वार बन्द था जो अगले दिन सक्रान्ति को खुलना था । मन्दिर के साथ ही दो कमरे थे जिनका फर्श लकड़ी का था और दिवारें मिट्टी की । ये हमारा रात का आश्रय स्थल था । यह 4-5 घरों का ही गांव था जहां सुविधाओं की बहुत कमी थी फिर भी वहां के लोगों ने हमें कम्बल वगैरा दे दिये । मौसम का मिज़ाज कुछ बदला सा था अब हल्की हल्की बारिश होने लगी थी फिर भी इस जगह पर गर्मी बहुत अधिक थी । हमने साथ में लाया हुआ खाना खाया और सो गए क्योंकि सफर लम्बा था और थकान से भरा भी ।
सुबह उसी खड्ड में मुंह हाथ धोने के बाद देव दर्शन के लिये गए । मन्दिर के अन्दर गए तो देखा कि एक और चान्दी का छोटा सा द्वार है जिस पर साँप निर्मित थे। इस चान्दी के द्वार के आगे लकड़ी के खम्बों पर टिका थड़ा सा बना था जिस पर गोबर से लिपाई की गई थी। पुजारी ने बताया कि इस चान्दी के द्वार के भीतर एक गुफा है जिसमें एक गज जमीन में गाड़ी है 1 जब हमने गज के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि देव “माहूंनाग” और देव “धमूनीनाग” दो देवता इस खड्ड के दोनों ओर रहते थे जब और सभी देवता पहाड़ों के उपर रहने चले गए तो इन दोनों ने निर्णय लिया कि ये अपने मूल स्थान में ही निवास करेंगे । परंतु देव “धमूनीनाग” अपने निर्णय को भूल कर पहाड़ के उपर रहने चले गये तब देव “माहूंनाग” ने ये गज गाड़ कर अपने पहाड़ को उनसे भी ऊंचा कर दिया ।
ये “माहूंनाग” दानी राजा “कर्ण” हैं और कोई भी इनके द्वार से खाली नहीं जाता है ये सबकी खाली झोली भरते हैं । अनेक दम्पती संतान की चाह लिये इनके द्वार पर मन्नत मांगते हैं और चाह पूरी होने पर बकरे की बलि देते हैं । जो कोई भी सच्चे मन से शीश नवाता है उसे उस चांन्दी के दरवाजे से नाग के फुंकारने की आवाज सुनाई देती है । उस दिन एक दम्पति अपनी मन्नत पूरी होने पर बकरे की बलि देने आये थे । पूजा शुरू की गई फिर बकरे को लाया गया तो द्वार खुला । हमने भी उस गज के दर्शन किए तो हमारी कल्पना के दर्पण पर हकीकत की तस्वीर उभर आई । पूजा समाप्त होने के बाद पुजारी ने जिसे स्थानीय भाषा में “गूर” कहा जाता है देव की बातें लोगों तक पहुँचाई । उसके बाद पास में स्थित “हत्या माता” की पूजा की गई हमने अपने जीवन में पहली बार हत्या माता के बारे सुना । उन लोगों के अनुसार हत्या माता की पूजा से आप जीवन में की गई हत्या के दोष से मुक्त हो जाते हैं । फिर मन्दिर के बाहर स्थापित “मसाणू” जी की पूजा की गई जो इन पहाड़ी देवताओं के संगी साथी माने जाते हैं ।
अंत में वहां के लोगों से विदा लेकर हम अपने घर की ओर रवाना हो गए अनेक सवालों से घिरे मन के साथ कि क्या सच में कोई देव आपको संतान दे सकता है ? क्या किसी जीव की जिन्दगी इतनी सस्ती है कि आप अपने लिये उसकी बलि चढ़ा दें ? परंतु सच कहें तो देवालय में बैठ कर कोई प्रश्न नहीं उठता मन में । इंसान शून्य में विलीन हो जाता है , अंतस की गहराई में उतरने लगता है , मात्र कुछ समय के लिये ही सही अपनी सांसारिक दुनिया से दूर हो जाता है । शायद यही वो आस्था की शक्ति है जो आज के इस वैज्ञानिक युग मे भी हम इन संस्कृतियों से जुड़े हैं और बन्धे हैं भक्ति की डोर से ...............भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Monday, May 17, 2010

युगदर्पण भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Friday, April 9, 2010

glitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphicsglitter graphics

भारत जब तक इतिहास को जीता था भारत था,'इंडिया' बन,इतिहास भूलने व बिगाड़ने की पतन की राह चलने लगा !आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक